Thursday 8 October 2015

समय की पाबंदगी

शादी-ब्याह में बेचारे समय को कौन पूछता है, खासकर पंजाबियों के यहां तो दो-तीन घंटे की बात कोई मायने ही नहीं रखती, ना ही उभय-पक्ष इस पर ध्यान देते हैं। पर उस समय हम सब आश्चर्य चकित रह गए जब ठीक छह बजे बारात दरवाजे पर आ खड़ी हुयी। थोड़ी हड़बड़ी तो हुई पर साढ़े आठ बजते-बजते पंडाल तकरीबन खाली हो चुका था। आदतन देर से आने वाले दोस्त-मित्रों को शायद पहली बार ऐसे "समय" से दो-चार होना पड़ा था। 

मेरे स्कूल का घर से पैदल पांच-सात मिनट का रास्ता था। ऐसा कहा जाता है कि नजदीक वाले ही ज्यादातर विलंब से पहुंचते हैं। पर मुझे शायद ही कभी देर हुई हो। देख-सुन कर अच्छा लगता था जब लोग कहते थे कि मिसेज शर्मा के आने पर अपनी घडी मिलाई जा सकती है। समय की पाबंदगी मुझे अपने पापा से विरासत में मिली थी। यह संयोग ही था कि मेरे ससुराल में भी हर काम घडी की सुइयों के साथ चलता था। वहां तो बाबूजी के काम के साथ जैसे घडी को चलना पड़ता था। शर्मा जी भी समय के पूरे पाबंद हैं, लेट-लतीफी उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं है। इसी पाबंदगी के कारण हमारे दोनों परिवारों का पहला परिचय भी लोगों के लिए एक उदाहरण बन गया था। 

बात मेरी शादी के समय की है। दिसंबर का महीना था। दिल्ली की ठंड अपने चरम पर थी। इसी को देखते हुए स्वागत समारोह छह बजे शाम का और रात्रि भोज का समय सात बजे का रखा गया था। शादी-ब्याह में बेचारे समय को कौन पूछता है, खासकर पंजाबियों के यहां तो दो-तीन घंटे की बात कोई मायने ही नहीं रखती, ना ही उभय-पक्ष इस पर ध्यान देते हैं। पर उस समय हम सब आश्चर्य चकित रह गए जब ठीक छह बजे बारात दरवाजे पर आ खड़ी हुयी। थोड़ी हड़बड़ी तो हुई पर साढ़े आठ बजते-बजते पंडाल तकरीबन खाली हो चुका था। आदतन देर से आने वाले दोस्त-मित्रों को शायद पहली बार ऐसे "समय" से दो-चार होना पड़ा था। इस बात पर मेरी सहेलियां शर्मा जी से अक्सर मजाक में कहती रहीं कि आप को बड़ी जल्दी थी दीदी को ले जाने की। 

समय की कीमत को समझो, इस बेशकीमती चीज की कद्र करो, इसे फिजूल बरबाद न करो, यह एक बार गया तो फिर कभी हाथ नहीं आता, आता है तो सिर्फ पछतावा। इस बात को मैं सदा अपने छात्रों को समझाती रही हूँ। मुझे ख़ुशी है कि मेरे अपने बच्चे भी इस परंपरा को चलाए रख रहे हैं। 

1 comment:

  1. प्रेरक प्रस्तुति - प्रशंसनीय

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