Wednesday 21 October 2015

जेहि विधि राखे राम उही विधि रहिए

इंसान का शरीर ठीक हो तभी सब कुछ संभव है। इसीलिए निरोगी काया को प्राथमिकता दी जाती है। मुझे याद नहीं कि मैंने नवरात्रों में व्रत रखने कब से शुरू किए। मायके से चली आ रही यह आदत, इसे आदत ही तो कहेंगे, ससुराल में भी बिना किसी बाधा के वर्षों जारी रही। पर इस बार पहली दफा अपने शरीर के चलते नौ दिनों में किसी भी दिन उपवास नहीं रख सकी। अफ़सोस जरूर है पर पिछले दिनों नर्सिंग होम जाने की घटना ने मजबूरी -वश ऐसा नहीं होने दिया।  इसी मजबूरी के चलते कई नियम-कायदे अपनी जगह छोड़ गए। फिर लगता है वह तो सबकी माँ है और माँ तो कभी बच्चों से ना नाराज होती है  नाहीं कोई गिला-शिकवा करती है। उसने जैसा चाहा होगा वैसा ही हुआ। पहले जब पूरे व्रत रखे जाते थे तब भी वही शक्ति देती थी काम करने की, क्योंकि स्कूल में तो इतनी छुट्टियां होती नहीं थीं, और मेरी आदत भी नहीं थी कि कुछ ना कुछ खाती रहूं, फिर भी कभी थकान या कोई तकलीफ नहीं हुई थी। अब शरीर उतना साथ नहीं देता तो जैसा हो पाया वैसा किया।  

हमारी तो इतनी उम्र हो गयी अभी भी सारे काम खुद करने से ही तसल्ली मिलती है। पर आज की पीढ़ी खुद पर जुल्म करते दिखती है तो मुझे चिंता होती है उनके भविष्य की।  रात देर तक जगना, सुबह फिर हड़बड़ी में भागना, ना खाने का ठिकाना, नाहीं सोने का वक्त ! उम्र बढ़ने पर इसका असर पड़ना ही है। पर आज की आपा-धापी वाली जिंदगी में ये लोग भी क्या करें !! बस "जेहि विधि रखे राम उही विधि रहिए" सोच  कर रह जाना पड़ता है। 

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