Sunday, 25 October 2015

मेरी सहेली

मैं पंजाब की वह केरल की। खान-पान, भाषा-रिवाज, रहन-सहन सब कुछ अलग होते हुए भी ऐसी क्या बात थी जिसने हमारे बहनापे को इतनी मजबूती दे दी।

कुछ भी हो चाह कर भी पुरानी यादों को दर-किनार नहीं जा सकता। फिर वहाँ की, जहां जिंदगी के बेहतरीन तीस साल गुजरे हों, भुलाना मुश्किल ही होता है। आज भी अपने स्कूल के एक-एक दिन चित्र-पट की तरह मेरी आँखों के सामने घूम जाते हैं। मेरे वहाँ पढ़ाना शुरू करने के करीब साल भर बाद एक मलयाली युवती ने भी उस स्कूल को ज्वाइन किया।  नाम था गीता त्यागराजन। सीधी-सादी, कम बोलने वाली गीता से, जिसे मैं गीतू कह कर बुलाने लगी थी, मेरी अच्छी पटने लगी। धीरे-धीरे दोनों दो जिस्म एक जान की तरह जाने, जाने लगे। अलग संस्कृति, रीती-रिवाज होने के बावजूद दोनों परिवार एक-दूसरे के सुख-दुःख, हारी-परेशानी, उत्सव-त्यौहार में सम्मलित होने लगे थे। मेरे सेवानिवृत होने और दिल्ली आने का जितना दुःख उसे हुआ उतना तो घर वालों को भी नहीं हुआ था। हफ़्तों पहले से ही वह उदास रहने लगी थी ज़रा सी बात पर उसके आंसू निकल आते थे। बार-बार मुझे एक-दो साल और काम करते रहने के लिए कहती रहती थी। क्योंकि स्कूल की कमेटी ने भी मुझसे पूछा था कि यदि मैं चाहूँ तो रिटायरमेंट का समय आगे बढ़ाया जा सकता है। पर अब बच्चों के पास जाने की इच्छा ज्यादा बलवती थी। वैसे भी आज नहीं तो कल ऐसा होना ही था और समय के अनुसार खुद को ढालना तो था ही। फिर भी कभी-कभी सोचती हूँ तो बड़ा अजीब सा लगता है, कहाँ मैं पंजाब की वह केरल की। खान-पान, भाषा-रिवाज, रहन-सहन सब कुछ अलग होते हुए भी ऐसी क्या बात थी जिसने हमारे बहनापे को इतनी मजबूती दे दी। मेरी ज़रा सी तकलीफ पर वह सहारा बन आ खड़ी होती, बिना अपने घर और घरवालों की चिंता किए। उसके मिस्टर भी बहुत को-आपरेटिव स्वभाव के धर्म-भीरु इंसान हैं। शर्माजी के साथ उनकी भी गहरी छनती है।  जबकि मैं चाह कर भी उसके दस प्रतिशत भी काम नहीं आ पाती थी।    

अब सामने जनवरी में उसकी बिटिया की शादी है सोच रही हूँ कि सब ठीक रहा तो एक चक्कर लगा लूँगी। महीना होने जा रहा है पर शायद ही कोई दिन ऐसा गया होगा जब हमने आपस में बात नं की हो। वैसे समय खुद ही तकलीफ देता है तो मरहम भी वही लगाता है। इंसान धीरे-धीरे अपने गम गलत करना सीख ही जाता है।भगवान से यही प्रार्थना है कि वह और उसका परिवार जहां भी रहे सदा सुखी रहे।       

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