अब जब शिक्षण जगत से अवकाश मिल गया है तो आश्चर्य सा होता है कि कैसे अनायास ही मैं इससे जुड़ गयी थी। बात शायद 1979-80 की है। तब हम दिल्ली के राजौरी गार्डेन में रहते थे। सामने का घर एक संपन्न पंजाबी मल्होत्रा परिवार का था, जिनकी पुत्र वधु शौकिया तौर पर आस-पास के बच्चों को पढ़ाया करती थी। देखते ही देखते बच्चों की संख्या अच्छी-खासी हो गयी थी। संभालना थोड़ा कठिन हो चला था। इसी को देखते हुए उसने मुझसे साथ देने की बात कही, उन दिनों मैं भी दोपहर को खाली ही थी सो मुझे भी समय बिताने का मौका मिल रहा था। समय देना था एक घंटा जिसके एवज में सौ रुपये की आमदनी थी। वैसे भी पढ़ाना मेरे पसंदीदा कामों में से एक था। इस तरह शिक्षण के काम से मेरा पहला परिचय हुआ। कुछ दिनों बाद पास ही के एक स्कूल में पढ़ाने के प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लिया।
फिर 1988-89 में रायपुर आना हुआ। दिल्ली के स्कूल के प्रमाण पत्र ने बड़ी आसानी से यहां के एक स्कूल में काम दिलवा दिया। जहां जिंदगी के 26 -27 साल, उस स्कूल को फलते-फूलते-बढ़ते, तरह-तरह के अनुभवों से दो-चार होते, कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। बस एक ही झोँक रहती थी कि मुझे जिन बच्चों की जिम्मेदारी मिली है वह सही ढंग से पूरी हो जाए। गर्मी-सर्दी-बरसात, कभी नागा नहीं किया। इतने सालों में अँगुलियों पर गिन सकी जा सकें उतनी ही छुट्टियां होंगी मेरे नाम। उस मेहनत का फल भी मिला है मुझे। आज के इस युग में जब काम निकल जाने के बाद रिश्तेदार भी आँख बचा कर कन्नी काट जाते हैं वहीँ कई बार अक्सर ऐसा होता है कि जानी-अंजानी, दूर-दराज, अन्य प्रांतों में भी कोई आ कर पैर छू कर अपनी पत्नी और बच्चों को बताता है कि ये मेरी मैम रही हैं स्कूल में तो लगता है जीवन के वे वर्ष यूँ ही नहीं बीते, समय सार्थक हो कर ही गुजरा है।
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