सुना था कि यादें पीछा नहीं छोड़तीं। तब इस पर ध्यान नहीं जाता था। पर अब दो महीने के ऊपर हो गया है समय, मुझे काम छोड़े, पर फिर भी ऐसा लगता है जैसे स्कूल की यादों के कोहरे में लिपटी हुई हूँ। किसी-किसी घटना को याद कर तो अब भी आँसू आ जाते हैं आँखों में।
इस बात को करीब दस साल हो चुके हैं। एक जबर्दस्त आर्थिक नुक्सान से हम अभी पूरी तरह उबर नहीं पाए थे कि इसी बीच मेरे छोटे बेटे का पूना के एक एम. बी. ए. संस्थान में चयन हो गया। उसकी कड़ी मेहनत रंग लाई थी, खुशी का माहौल था। पर मन के एक कोने में दाखिले की भारी-भरकम फीस के पैसों की चिंता भी जरूर थी, पर बैंकों के लुभावने विज्ञापनों से निश्चिंतता भी थी कि पैसों का इंतजाम हो ही जाएगा। पर जब बैंकों के चक्कर लगने शुरू हुए तो असलियत से सामना हुआ। बैंक में वर्षों से अच्छा भला खाता होने के बावजूद वहाँ के कर्मचारियों की रूचि लोन देने में नहीं न देने में ज्यादा थी। वहाँ किसी को भी इस बात का मलाल नहीं था कि वह किसी के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है। बीस दिन निकल गए थे। सारे कागजात पूरे होने के बावजूद काम सिरे नहीं चढ़ रहा था। भीषण मानसिक तनाव के दिन थे। ऐसा लगता था कि बेटे का भविष्य हाथ से निकला जा रहा है। अब सिर्फ चार दिन बचे थे और किसी तरह आधी रकम का ही इंतजाम हो पाया था।
इस बात को करीब दस साल हो चुके हैं। एक जबर्दस्त आर्थिक नुक्सान से हम अभी पूरी तरह उबर नहीं पाए थे कि इसी बीच मेरे छोटे बेटे का पूना के एक एम. बी. ए. संस्थान में चयन हो गया। उसकी कड़ी मेहनत रंग लाई थी, खुशी का माहौल था। पर मन के एक कोने में दाखिले की भारी-भरकम फीस के पैसों की चिंता भी जरूर थी, पर बैंकों के लुभावने विज्ञापनों से निश्चिंतता भी थी कि पैसों का इंतजाम हो ही जाएगा। पर जब बैंकों के चक्कर लगने शुरू हुए तो असलियत से सामना हुआ। बैंक में वर्षों से अच्छा भला खाता होने के बावजूद वहाँ के कर्मचारियों की रूचि लोन देने में नहीं न देने में ज्यादा थी। वहाँ किसी को भी इस बात का मलाल नहीं था कि वह किसी के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है। बीस दिन निकल गए थे। सारे कागजात पूरे होने के बावजूद काम सिरे नहीं चढ़ रहा था। भीषण मानसिक तनाव के दिन थे। ऐसा लगता था कि बेटे का भविष्य हाथ से निकला जा रहा है। अब सिर्फ चार दिन बचे थे और किसी तरह आधी रकम का ही इंतजाम हो पाया था।
ऐसी ही परेशानी की हालत में मैं स्कूल के स्टाफ रूम में बैठी थी, मन उचाट था, धैर्य जवाब दे चुका था. ऐसे में मन पर काबू न रहा और आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली। वजह तो सहकर्मियों से छुपी न थी, सब मुझे घेर कर ढाढस बधाने लग गए। पर फिर जो कुछ हुआ उसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी, दो-तीन घंटे के अंतराल में ही मेरे सामने मेज पर दो लाख रुपयों का ढेर लगा हुआ था। ऐसी रकम जो हफ्तों से आँख-मिचौनी कर रही थी, मेरे सामने पड़ी थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ क्या न कहूँ। हालत यह कि जुबान बंद, आँखें भीगी हुई और मन अपने सहयोगियों के उपकार के आगे नतमस्तक था। ऐसे आड़े वक्त जब हम चारों ओर से थक-हार कर निराश हो चुके थे तब स्कूल में कुछ घंटे साथ बिताने वाले सहकर्मी देवदूत बन कर सामने आए। जिससे जो बन पाया था उसने किया। सुना था कि प्रभू किसी न किसी रूप में अपने संकट-ग्रस्त बच्चों की सहायता जरूर करते हैं, उस दिन ईश्वर ही मानों मेरे सहकर्मियों के रूप में आए थे।
एक छोटे से स्कूल में छोटी सी तनख्वाह पाने वालों का मन कितना विशाल हो सकता है इसका प्रमाण उसी दिन मैंने जाना। उनके उपकार का सिला तो मैं जिंदगी भर नहीं चुका पाऊँगी पर खून के रिश्तों से परे दिल के रिश्तों में पहले से भी ज्यादा विश्वास करने लग गयी हूँ।